Tuesday, April 19, 2011

यूँ ही..

ज़िन्दगी अब किसी शाम के अक्श में नहीं ढल पाती.....
चाँद के रोशन से चाक पर खुद ही बिखरती जाती है

आँखों में किसी सेहर की सूरज की तमन्ना नहीं छुपती....
रातों के ख्वाबों में कोई बिंदिया सूरज वाली बुन सी जाती है

पलकें पिछली यादों के झिलमिलाते पानी से निखर ही नहीं पाती....
धुप तेज़ हो जैसे,जेठ की खुशियों की यूँ ही झपकती जाती है

कोई आकर पूछे मुझ से मेरा नाम क्यों??
जब तुम्हारे आने की आहटें,होने की सिलवटे सब उँगलियाँ लम्हों पर लिखती जाती हैं.

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