Wednesday, April 20, 2011

मेरे छोटे शहर की बातें.....

फिर याद आती हैं,
गुनुनाती हैं,
मेरे छोटे से शहर की लम्बी सी गर्मियां...
जब मेरे चंदा मामा सोये कदम्ब की डाली के ऊपर,
और सुबह सूरज का कोई और कोना ढूंढना....


घर के तोते से पहले जागना,
भूख लगे तो कुछ बासी सा टूंगना...

छ्प छप कर आँगन के नलके पर नहाना,
फिर तौलिये के लिए भाई से झगड़ना...

बस्ते में किताबों की जगह अमियाँ भर कर ले जाना,
रास्तों में रुक रुक कर फिल्मों के पोस्टर्स देखना....

साइकिल पर चढ़ना और गिरकर ही नीचे उतरना,
दौड़ दौड़ कर हर कम पूरा कर लेना....

सन्डे की सुबह होमवर्क जल्दी ख़त्म कर रखना,
और फिर शाम तक दूरदर्शन पर सिनेमा के नाम का इंतज़ार करना...

माँ का डांटना हर बार की पढना कितना जरूरी है,
हमारा सोचना जीने के लिए खेलना भी तो जरूरी है.....


1 comment:

Unknown said...

pot.comogslआपके ब्लॉग पर पढने को बड़ी अच्छी-अच्छी रचनायें मिलीं.. लिखते रहिये..

anilavtaar.blogspot.com