Monday, August 1, 2011

Pahadon mein ek nazm.....

पहाड़ों की पगडंडियों पर,
मैं तुम्हारा हाथ थामे थामे चलती हूँ...
और तुम अंजलियों में मुस्कराहट भरकर,
मुझ पर उड़ेलते जाते हो.

पास आते बादल का एक टुकड़ा, 
मैं उसको छूने की जिद करती हूँ...
तो तुम मेरे दुपट्टे के कोर से,
न जाने कितने रंगीन ख्वाब बांध देते हो.


जब मैं थक कर ,
सड़क किनारे बैठ जाती हूँ...
तुम हलके से मुस्कुरा कर,
मेरे पैरों तले अपना साथ ड़ाल देते हो.


मैं अपने गुलाबी हाथों को,
तुम्हारी pocket में गर्म करती रहती हूँ....
और तुम बड़ी सिद्दत से,
अपनी आग मेरे सीने में ड़ाल देते हो.


मैं कुछ न कहूँ,
चुपचाप जब तुमको देखा करूँ...
तुम अपनी ही कहानी कोई,
अपने होठों से मेरे होठों पर लिख देते हो.


गुस्सा होकर मैं,
तुम्हारा हाथ झटके से छोड़ देती हूँ...
और तुम बस मेरा नाम लेकर,
सर्द हवा से मेरे सीने में भर आते हो.

तुमसे झूठ भी बोलती हूँ,
नहीं मानती की ये प्यार है...
और तुम बस 'पगली' बोलकर,
मेरे झूठ पर मुस्कुरा भर देते हो.

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